गीत बसंत का




सुरभित मंद समीर ले                                                 
आया है मधुमास।

पुष्प रँगीले हो गए
किसलय करें किलोल,
माघ करे जादूगरी
अपनी गठरी खोल।

गंध पचीसों तिर रहे
पवन हुए उनचास ।

अमराई में कूकती
कोयल मीठे बैन,
बासंती-से हो गए
क्यों संध्या के नैन।

टेसू के संग झूमता
सरसों का उल्लास ।


पुलकित पुष्पित शोभिता
धरती गाती गीत,
पात पीत क्यों हो गए
है कैसी ये रीत।

नृत्य तितलियाँ कर रहीं
भौंरे करते रास ।

                                              -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



कुछ दाने, कुछ मिट्टी किंचित
सावन शेष रहे ।

सूरज अवसादित हो बैठा
ऋतुओं में अनबन,
नदिया पर्वत सागर रूठे
पवनों में जकड़न,

जो हो, बस आशा.ऊर्जा का
दामन शेष रहे ।

मौन हुए सब पंख पखेरू
झरनों का कलकल,
नीरवता को भंग कर रहा
कोई कोलाहल,

जो हो, संवादी सुर में अब
गायन शेष रहे । 

-
महेन्द्र वर्मा

दीये का संकल्प





तिमिर तिरोहित होगा निश्चित
दीये का संकल्प अटल है।

सत् के सम्मुख कब टिक पाया
घोर तमस की कुत्सित चाल,
ज्ञान रश्मियों से बिंध कर ही
हत होता अज्ञान कराल,

झंझावातों के झोंकों से
लौ का ऊर्ध्वगतित्व अचल है।

कितनी विपदाओं से निखरा
दीपक बन मिट्टी का कण.कण,
महत् सृष्टि का उत्स यही है
संदर्शित करता यह क्षण-क्षण,

साँझ समर्पित कर से द्योतित
सूरज का प्रतिरूप अनल है ।



शुभकामनाएँ

-महेन्द्र वर्मा




बेवजह







मुश्किलों को क्यों हवा दी बेवजह,
इल्म की क्यों बंदगी की बेवजह ।

हाथ   में   गहरी  लकीरें  दर्ज  थीं,
छल किया तक़़दीर ने ही बेवजह ।

सुबह ही थी शाम कैसे यक.ब.यक,
वक़्त  ने   की  दुश्मनी.सी बेवजह ।

वो  नहीं  पीछे   कभी  भी  देखता,
आपने  आवाज़  क्यों  दी बेवजह ।

धूप  थी, मैं  था  मगर साया न था,
देखता  हूँ  राह  किस की बेवजह ।


-महेन्द्र वर्मा