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सूफी संत मंसूर




सन् 858 ई. में ईरान में जन्मे सूफी संत मंसूर एक आध्यात्मिक विचारक, क्रांतिकारी लेखक और सूफी मत के पवित्र गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनका पूरा नाम मंसूर अल हलाज था।

इनके पिता का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था। बालक मंसूर पर इसका व्यापक असर हुआ। सांसारिक माया-मोह के प्रति ये विरक्त थे। इन्होंने सूफी महात्मा जुनैद बगदादी से आध्यात्म की शिक्षा ग्रहण की। बाद में अमर अल मक्की और साही अल तुस्तारी भी मंसूर के गुरु हुए।

मंसूर ने देश-विदेश की यात्राएं की। इस दौरान उन्होंने भारत और मध्य एशिया के अन्य देशों का भ्रमण किया। वे एक वर्ष तक मक्का में रहकर आध्यात्मिक चिंतन करते रहे। इसके बाद उन्होंने एक क्रांतिकारी वाक्य का उच्चारण करना शुरू कर दिया- ‘अनल हक‘, अर्थात, मैं सत्य हूं, और फिर बार-बार इस वाक्य को दुहराते रहे। ईरान के शासक ने समझा कि मंसूर स्वयं को परमात्मा कह रहा है । इसे गंभीर अपराध माना गया और उन्हें 11 वर्ष कैद की सजा दे दी गई। 

अनल हक कहने का मंसूर का आशय यह था कि जीव और परमात्मा में अभेद है। यह विचार हमारे उपनिषदों का एक सूत्र- अहं ब्रह्मास्मि के समान है।

सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। 26 मार्च, 922 ई. को संत मंसूर को अत्यंत क्रूर तरीके से अपार जन समुदाय के सामने मृत्युदण्ड दे दिया गया। पहले उनके पैर काटे गए, फिर हाथ और अंत में सिर। इस दौरान संत मंसूर निरंतर मुस्कुराते रहे, मानो कह रहे हों कि परमात्मा से मेरे मिलने की राह को काट सकते हो तो काटो।
मंसूर की आध्यात्मिक रचनाएं ‘किताब-अल-तवासीन‘ नामक पुस्तक में संकलित हैं।

प्रस्तुत है, संत मंसूर की एक आध्यात्मिक ग़ज़ल। यह रचना उर्दू में है। संत मंसूर उर्दू नहीं जानते थे इसलिए यह ग़ज़ल प्रत्यक्ष रूप से उनके द्वारा रचित नहीं हो सकती। संभव है, उनके किसी हिंदुस्तानी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना को उर्दू में अनुवाद किया हो। चूंकि ग़ज़ल में अनल हक और मक्ते में मंसूर आया है इसलिए इसे मंसूर रचित ग़ज़ल का उर्दू अनुवाद माना जा सकता है। बहरहाल, प्रस्तुत है, ये आध्यात्मिक ग़ज़ल-

अगर है शौक मिलने का, तो हरदम लौ लगाता जा,
जलाकर ख़ुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।

पकड़कर इश्क की झाड़ू, सफा कर हिज्र-ए-दिल को,
दुई की धूल को लेकर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।

मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न मर भूखा, न रख रोज़ा, न जा मस्जिद, न कर सज्दा,
वजू का  तोड़  दे  कूजा, शराबे  शौक  पीता  जा।

हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो एकदम
नशे में सैर कर अपनी, ख़ुदी को तू जलाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बह्मन, दुई की छोड़कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनल हक तू कहाता जा।

कहे ‘मंसूर‘ मस्ताना, ये मैंने दिल में पहचाना,
वही मस्तों का मयख़ाना, उसी के बीच आता जा।