नए वर्ष से अनुनय

ढूँढो कोई कहाँ पर रहती मानवता,
मानव से भयभीत सहमती मानवता।

रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी लगती मानवता।

मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध लरजती मानवता।

है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ-पूछ कर रही भटकती मानवता।

मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।

                                                           
-महेन्द्र वर्मा
नव-वर्ष शुभकर हो !

सफेद बादलों की लकीर



1.
 

कितनी धुँधली-सी
हो गई हैं
छवियाँ
या
आँखों में
भर आया है कुछ

शायद
अतीत की नदी में
गोता लगा रही हैं
आँखें !

2.

विवेक ने कहा-
हाँ,
यही उचित है !
........
अंतर्मन का प्रकाश
कभी काला नहीं होता !

3.

दिन गुजर गया
विलीन हो गया
दूर क्षितिज में
एक बिंदु-सा
लेकिन
अपने पैरों में
बँधे राकेट के धुएँ से
सफेद बादलों की लकीर
उकेर गया
मन के आकाश में !

                                        -महेन्द्र वर्मा